Reported By: Surendra nath Dwivedi
Published on: Jul 8, 2020 | 9:53 AM
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सुरेन्द्र/कुशीनगर
सावन मास रिमझिम बारिश व फुहारों के साथ आज काले कजरारे बादल उमड घुमड के साथ बरस रहे हैं, मेढक की टर्र टर्र की आवाज तालाब पोखरो मे हिचकोले ले रहे हैं और सावन की ठण्डी और सुगंधित हवाएँ अँगडाई ले रही हैं लेकिन समसामयिक सावनी गीत कजरी कही सुनाई नहीं दे रही जिससे मदमस्त हवाएं चलने व पपीहा पी कहाँ बोलने में सँकोच कर रहा है।
तब-तक परदेश गए अपने पति से एक सखी फोन पर कह बैठती हैं
बलम मेँहदी मँगाय ,द,मोती झील से जाय ,के,सायकिल से ना, दूसरी नायिका के घर बरसात में टपक रहे थे और पति का अभाव खटक रहा था बरस,बरस ,असरेशवा चुवेला बखरी इसी क्रम में तीसरी नायिका को लहलहाती धान की हरी भरी फसलों को देखकर जब सावन मास सताने लगता है तबतक करवट बदलती हुई फोन पर *सँदेशा भेजती हुई कहती हैं कि झुला डाल देब नेबुला अनार मे सावन के बहार मे ना।। लेकिन फिर भी सावन की टपकती बूँदें ,रिमझिम फुहार और पपीहा की बोली नायिका को टीस पहुंचा रही हैं। सावन मास का आज तीसरा दिन है चँहुओर धान की हरियाली छाई हुई है वही हाट बाजारों में बिक रही हरी हरी चुडिया, हरी हरी चुनरिया, सावन आने का एहसास करा रही हैं। लेकिन वैश्विक महामारी कोरोना सावनी गीतों पर भारी पड़ रहा है जिससे कोसो दूर सावनी गीत कजरी नहीं सुनाई दे रही हैं ,न ही गाँव, देहात,व बाजार के पेडों पर झूला नहीं दिखाई दे रहा है।तब तक खेतों में धान की रोपाई कर रही युवतियों ने रिमझिम फुहारों के आनन्द से रोमाँचित व पुलकित हो गाती हैं अँग ,अँग ,पोर पोर मे उठेला दरदिया पिया बिन भावे न सवनवा ना।।, इस तरह से पारम्परिक गीतों से आज इस सावन मास से ओत- प्रोत हो महिलाएं गुनगुना रही हैं तो वहीं विरहिणी नायिकाएं नायक से सावन आने की याद भी दिला रही हैं। लोगों का कहना है समय-समय पर हर गीतों का महत्व है लेकिन आज इस बदलते परिवेश व आधुनिकता के दौर में धीरे धीरे झूला और कजरी गीत लुप्तप्राय होता जा रहा है।बुजुर्गों का मानना है कि सावन मास जैसे ही आने का इशारा करता था उसके पहले ही चहुंओर झूला और कजरी गीतों का आनन्द उठाते लोग देखे जाते थे ,लेकिन आधुनिकता के दलदल में फँसता जा रहा हर व्यक्ति अपनी सँस्कृति और रीति रिवाज, परम्परा व समसामयिक गीत गवनई को भूलता जा रहा जिससे सावन मनभावन उदास दिखाई दे रहा है।