●राज्य ईकाई को आत्ममंथन की जरूरत बता रहे लोग●
पालघर। कभी कांग्रेसियों का गढ़ कहा जाने वाला पालघर किल्ला आज लगभग धवस्त होने के कगार पर है। कार्यकर्ताओं को लेकर पदाधिकारियों की उदासीनता व क्षेत्र में जारी कार्यप्रणाली भी जगजाहिर है। आम लोगों का मोह सही नेतृत्व के अभाव में भंग हो चुका है। सारे समीकरण और गणित राज्य के कांग्रेसी पुरोधाओं के पालघर में पार्टी की अंर्तकलह के कारण धरे के धरे रह गये है। हाशिए पर जाती कांग्रेस को अब ऐसे निर्विवाद और संगठन को एक सूत्र में पिरोने वाले जनमानस से जुड़े नेता की जरूरत है जो दमखम दिखा सकें। ऐसे में जिलाध्यक्ष का सेहरा किसके सिर संजेगा उसकी अटकलों का बाजार गर्म हो चुका है।
जानकार बताते हैं कि पालघर में कांग्रेस को पुर्नजीवित करने के लिए चर्चाओं में जिलाध्यक्ष पद अल्पसंख्यक कोटे में करने के लिए एक धड़ा मन बनाए बैठा है।वैसे जिला कार्याध्यक्ष व उत्तर भारतीयों मे सक्रिय स्व.चंद्रकांत(नन्नू) दुबे ही प्रबल दावेदार थे,लेकिन उनकी असमय मौत के बाद कांग्रेस के पालघर जिला अध्यक्ष पद के लिए फिर से कुशल नेतृत्व व साफ छवि वाले नेता की कार्यकर्ता तलाश रहे हैं।
पालघर की भौगोलिक परिस्थिति पर नजर डालें तो अल्पसंख्यक समुदाय अर्सों से कांग्रेस के साथ जरूर रहा लेकिन उन्हें कांग्रेस कमेटी में कभी माकूल जगह नही मिलने की टीस जरूर रही। फिलहाल आज जिला कमेटी में रुफी खलील भूरे (कार्याध्यक्ष),मोईज सलीम शेख(महासचिव),सिकंदर कुतुबुद्दीन शेख(वरिष्ठ उपाध्यक्ष) पद पर आसीन है। पार्टी में मुस्लिम चेहरों के रूप में इनकी राज्य के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं में इनकी अच्छी पकड़ बताई जाती है। पार्टी की राज्य इकाई यद्यपि किसी एक अल्पसंख्यक को आगे करती है तो शायद मुस्लिम समाज को आत्मबल व अन्य लोगों को गुरेज नही होना चाहिए।

वहीं पालघर जिला आदिवासी बाहुल्य है, उन्हें अग्रणी बनाने की भी वकालत हो रही है जो जायज भी है।ऐसे राजनीतिक गणना करें तो मधुकर चौधरी(कार्याध्यक्ष)तथा उदीयमान आदिवासियों के लिए तनमन से कार्य करने के लिए आतुर बलवंत गावित के नाम पर भी पार्टी के वरिष्ठ चर्चा कर सकते हैं। पालघर का एक इतिहास रहा है खाशकर मुस्लिम और आदिवासी समाज का जनाधार ज्यादातर कांग्रेस के साथ रहते आया है।जातिवादी राजनीति से दूर कांग्रेस के लिए अब पालघर में सर्वमान्य, सशक्त अध्यक्ष मनोनीत करना समय की मांग बन गयी है।

सर्वविदित है कि पूर्व में जिलाअध्यक्ष केदार काले का एक वर्ष का कार्यकाल कुछ मिला जुला रहा। सहयोगियों के असहयोग ने उन्हें निरुत्तर कर दिया और कांग्रेस छोड़कर आज वे शिवसेना के जिला समन्यवक हैं। कांग्रेसी सूत्रों की मानें तो पार्टी को मजबूत बनाने के लिए दिवाकर (दादा) पाटील पर राज्य संगठन का भरोसा भी काम नही आया और जिला परिषद व पंचायत समिति के स्थानीय चुनावों में पार्टी का जनाधार और खिसकता रहा।जिसके कारण कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय और जन कल्याणकारी मुद्दों पर पार्टी को वर्तमान में मुखर नेतृत्व के बिना धाराशायी होना पड़ रहा है। आगामी आम चुनाव तथा पार्टी के खिसकते जनाधार को पुनः समेटने के लिए संगठन को पुर्नविचार के साथ आगामी दिनों में एक नया अध्याय लिखने के लिए जिले में नये तेवर के साथ मंझे हुए राजनेता को सेहरा पहनाने की जरूरत को कार्यकर्ता बल दे रहे हैं।